सोमवार, 20 अक्टूबर 2025

“अरे डॉक्टर ने तो इस exercise के लिये मना किया है, आप क्यों करवा रहे हो”— फिजियोथेरेपिस्ट के प्रति मरीज की मानसिकता का गहन विश्लेषण

यह विषय फिजियोथेरेपी की professional identity, public perception और health communication gap — तीनों से जुड़ा हुआ है।
आइए इसे एक बहुत ही गहरे और विस्तृत विश्लेषण के रूप में समझते हैं 👇👇

🧠 “अरे डॉक्टर ने तो इस exercise के लिये मना किया है, आप क्यों करवा रहे हो”— फिजियोथेरेपिस्ट के प्रति मरीज की मानसिकता का गहन विश्लेषण

🔹 प्रस्तावना:-
     यह वाक्य सिर्फ एक सवाल नहीं है, बल्कि भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली में व्याप्त अज्ञान, गलतफहमी और hierarchy-based सोच की गूंज है। फिजियोथेरेपिस्ट रोज़ाना मरीजों से ऐसे संवाद सुनते हैं, जो न केवल उनकी clinical authority को चुनौती देते हैं, बल्कि पूरे rehabilitation system की गलत समझ को उजागर करते हैं।
     यह मानसिकता “Physiotherapy क्या है” की सीमित समझ और “Doctor” शब्द की अतिशय प्रतिष्ठा का परिणाम है।

🔹1. डॉक्टर = परम निर्णयकर्ता की मानसिकता:
भारत में “डॉक्टर” शब्द को सर्वज्ञ, सर्वोच्च और अंतिम निर्णय लेने वाले के रूप में देखा जाता है। मरीज के मन में यह धारणा बैठी हुई है कि डॉक्टर जो बोले वही अंतिम सत्य है।
-अगर डॉक्टर ने किसी exercise को “अभी नहीं” कहा था, तो मरीज सोचता है कि यह “कभी नहीं” है। जबकि फिजियोथेरेपिस्ट जब वही exercise कुछ दिन बाद recovery phase में शुरू कराता है, तो मरीज को लगता है कि physiotherapist “डॉक्टर की बात के खिलाफ” जा रहा है।

असल में मरीज यह नहीं समझता कि Doctor और Physiotherapist दोनों patient care के अलग-अलग phase में कार्य करते हैं।

🔹 2. Physiotherapist = Doctor का “Helper” समझना:
     अधिकांश लोग मानते हैं कि Physiotherapist केवल Doctor के कहने पर exercise करवाता है, जबकि हकीकत यह है कि Physiotherapist स्वतंत्र health professional है, जो assessment, diagnosis और treatment planning खुद कर सकता है।
    Physiotherapist की भूमिका परामर्शदाता नहीं, निर्णायक होती है — लेकिन मरीज इसे पहचान नहीं पाता। वह सोचता है कि physiotherapist सिर्फ “order follow” कर रहा है, “decision making” नहीं।

🔹 3. Communication gap – असली दोषी:
      Doctor, Physiotherapist और Patient के बीच सबसे बड़ी दीवार communication gap है। कई बार डॉक्टर discharge summary में केवल “physiotherapy advised” लिख देते हैं — बिना यह स्पष्ट किए कि किस phase में कौन सी exercises शुरू होंगी।
     जब physiotherapist patient को scientifically plan के अनुसार exercises शुरू कराता है, तो मरीज को लगता है कि “यह तो डॉक्टर के उलट काम हो रहा है।”
👉🏻असल में fault किसी व्यक्ति का नहीं, बल्कि system communication का होता है।

🔹 4. Passive मरीज संस्कृति:
       भारतीय मरीज का nature “passive” है —वह खुद की recovery में active role नहीं निभाना चाहता। वह मानता है कि “इलाज डॉक्टर करेगा, मैं बस दवा लूंगा।”
      जब physiotherapist कहता है “आपको खुद exercise करनी होगी”,
तो मरीज को यह बोझ या काम जैसा लगता है, इलाज नहीं।
      इसलिए जब कोई activity शुरू होती है, वह तुरंत पूछता है — “डॉक्टर ने तो मना किया था” —क्योंकि उसे खुद मेहनत करने की मानसिक तैयारी नहीं होती।

🔹 5. Fear Factor – “कुछ गलत न हो जाए”:
मरीज को यह डर रहता है कि अगर उसने physiotherapist की बात मानी और दर्द बढ़ गया, तो जिम्मेदारी किसकी होगी?
वह सुरक्षा की भावना से “डॉक्टर की राय” के पीछे छिप जाता है। यह मानसिकता उसे “defensive patient” बना देती है —जो recovery को धीमा कर देती है।

🔹 6. Social conditioning – Dr. का दर्जा, Physio का संघर्ष:
समाज में “Dr.” शब्द का उपयोग prestige का प्रतीक है। Physiotherapist को जब “Doctor” नहीं माना जाता, तो मरीज subconsciously उसे “कम योग्य” समझ लेता है। यह सामाजिक conditioning इतनी गहरी है कि भले ही physiotherapist अधिक time, effort और scientific reasoning लगा रहा हो, फिर भी मरीज को लगता है कि “डॉक्टर ही सही है।”

🔹 7. Clinical authority की अनदेखी:
       Physiotherapist musculoskeletal, neurological और cardiopulmonary rehabilitation में decision-making expert होते हैं। उनकी हर exercise scientific logic और protocol पर आधारित होती है।
       लेकिन मरीज को यह नजर नहीं आता — उसे बस “exercise करवाने वाला” व्यक्ति दिखता है। मरीज को समझना चाहिए कि physiotherapist केवल muscle नहीं, बल्कि movement science और functional recovery के विशेषज्ञ हैं।

🔹 8. विश्वास बनाम ज्ञान का अंतर:
मरीज डॉक्टर पर “विश्वास” से चलता है, physiotherapist पर “ज्ञान” से नहीं।
डॉक्टर की बात वह बिना समझे (आँख मूँद कर) मानता है, physiotherapist की बात समझने के बाद भी मानने में हिचकता है। यही कारण है कि recovery अक्सर patient के trust gap में फँस जाती है।

🔹 9. समाधान – इस मानसिकता को कैसे बदला जाए:

✅ 1. Patient education:
हर session में physiotherapist को मरीज को बताना चाहिए कि exercise किस stage पर और क्यों जरूरी है। अगर patient को reasoning समझ में आएगी, तो resistance घटेगा।

✅ 2. Inter-professional respect:
डॉक्टर और physiotherapist दोनों को एक दूसरे की भूमिका को सार्वजनिक रूप से सम्मानित करना चाहिए। जब डॉक्टर physiotherapy को openly recommend करेगा, तभी मरीज उसे equal importance देगा।

✅ 3. Evidence-based counselling:
Physiotherapist को सिर्फ “exercise करवाने” से पहले यह भी बताना चाहिए कि इससे कौन-सा ligament/muscle recover होगा, किस phase में यह safe है और clinical research क्या कहती है। Scientific explanation से patient का भरोसा बढ़ता है।

✅ 4. Professional identity building:
Physiotherapist को अपनी पहचान “exercise provider” नहीं, बल्कि rehabilitation doctor या movement expert के रूप में स्थापित करनी होगी। Confidence और knowledge presentation ही perception बदलता है।

🔹 निष्कर्ष:
मरीज का यह वाक्य —
 “अरे डॉक्टर ने तो इस exercise के लिये मना किया है, आप क्यों करवा रहे हो?”
     दरअसल एक गहरे सामाजिक, शैक्षणिक और संचार-आधारित भ्रम का परिणाम है। मरीज की गलती नहीं, बल्कि उसकी जानकारी अधूरी है।
    Physiotherapist का दायित्व है कि वह न केवल शरीर की बल्कि मरीज की सोच का भी rehabilitation करे।
क्योंकि recovery सिर्फ muscles की नहीं, mindset की भी होती है।

🩺 अंतिम संदेश:
डॉक्टर बीमारी को रोकता है, पर फिजियोथेरेपिस्ट सीमाओं को तोड़ता है।
डॉक्टर जीवन बचाता है, पर फिजियोथेरेपिस्ट जीवन को फिर से चलाता है।

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