शनिवार, 18 अक्टूबर 2025

“जब Doctor लिखेगा या बोलेगा तब ही फिजियोथेरेपी करवाएंगे” — मरीज की मानसिकता का गहन विश्लेषण

🧠 विषय:-“जब Doctor लिखेगा या बोलेगा तब ही फिजियोथेरेपी करवाएंगे” — मरीज की मानसिकता का गहन विश्लेषण

🔹 Authority पर आधारित सामाजिक मानसिकता (Authority-Based Society):
      भारतीय समाज में स्वास्थ्य व्यवस्था सदियों से “authority पर आधारित” रही है। मरीज स्वयं निर्णय लेने के बजाय डॉक्टर की राय को अंतिम सत्य मानता है। डॉक्टर का सफेद कोट, prescription pad और medical degree एक symbol of ultimate authority बन चुका है। मरीज के मन में यह धारणा बैठी होती है कि “डॉक्टर बोलेगा तो ही सही होगा”, भले ही उसके शरीर को सुधारने में physiotherapy की भूमिका ज़्यादा क्यों न हो।
👉 यह मानसिकता व्यक्ति को निर्णय-निर्भर (decision dependent) बनाती है, जहां वह अपनी health responsibility खुद लेने से डरता है।

🔹 Physiotherapy की वास्तविक पहचान की कमी:
    अधिकांश मरीजों को यह समझ ही नहीं होती कि physiotherapy एक स्वतंत्र medical science है। उनके लिए physiotherapy का मतलब “exercise”, “malish”, “heat pack”, या “doctor के कहने के बाद की प्रक्रिया” तक सीमित है। इस गलतफहमी की वजह से physiotherapist की पहचान “doctor के assistant” के रूप में बन जाती है।
👉 जब पहचान ही अधूरी हो, तो मरीज यह नहीं सोच पाता कि वह physiotherapist से direct consultation ले सकता है।

🔹 Medical hierarchy की गहरी जड़ें:
स्वास्थ्य क्षेत्र में hierarchy इतनी गहरी है कि Doctor को “निर्देशक”, hysiotherapist को “सहायक”, और मरीज को “आदेशपालक” माना जाता है।
इस मानसिक संरचना में मरीज को यह लगता है कि physiotherapy तभी शुरू होगी जब doctor “permission” देगा —यानी physiotherapist की clinical decision-making क्षमता को समाज द्वारा स्वीकार ही नहीं किया गया है।
👉 यह hierarchy केवल hospitals में नहीं, बल्कि मरीज के घर और सोच में भी मौजूद है।

🔹 Fear of Responsibility (ज़िम्मेदारी से डर):
मरीज को यह डर रहता है कि अगर उसने physiotherapy खुद से शुरू की और कुछ गलत हो गया तो?
“डॉक्टर ने नहीं कहा था, गलती मेरी हो जाएगी” — यह वाक्य उसकी सोच में लगातार चलता रहता है। इस डर की वजह से मरीज अपनी decision power डॉक्टर को सौंप देता है, और अपनी recovery की गति भी उसी के इशारे पर रखता है।
👉 यह defensive behaviour है, जो व्यक्ति को सुरक्षित तो रखता है, परंतु recovery को delay कर देता है।

🔹 Social Conditioning और Blind Trust:
भारत में “doctor बोलेगा तो सही बोलेगा” — यह सांस्कृतिक conditioning है। बचपन से ही माता-पिता बच्चों को सिखाते हैं, “बेटा, डॉक्टर ने जो कहा वैसा ही करना।” इसने critical thinking को खत्म कर दिया है। मरीज अपने शरीर के signals को नजरअंदाज कर देता है और डॉक्टर के शब्द को “final order” मान लेता है।
👉 यह blind trust अक्सर physiotherapy जैसी services की value को कम कर देता है।

🔹 Physiotherapy Awareness की कमी (Lack of Public Education):
Physiotherapy को लेकर न तो schools में health education होती है,
न ही hospitals में पर्याप्त awareness boards।
मरीज को यह नहीं पता होता कि –Physiotherapist भी दर्द, posture, mobility और neurological conditions को independently assess कर सकता है। वह diagnosis, treatment planning और prevention में समान रूप से सक्षम होता है।
👉 जब जानकारी ही नहीं होगी, तो निर्णय का अधिकार हमेशा किसी और को दे दिया जाएगा।

🔹 Doctor-Driven Referral Culture:
Healthcare system ने खुद इस dependency को मजबूत किया है। अधिकांश hospitals या clinics में physiotherapy तभी शुरू होती है जब doctor prescription लिखता है। Physiotherapist को referral के ज़रिए पेश किया जाता है, इससे मरीज के मन में physiotherapy की image “doctor की सिफारिश” से जुड़ जाती है, ना कि एक “स्वतंत्र चिकित्सा निर्णय” के रूप में।
👉 यह system-induced mindset है, जो वर्षों से दोहराई जा रही है।

🔹 Trust Deficit in Allied Professionals:
मरीज को डॉक्टर पर भरोसा तो होता है, लेकिन physiotherapist, dietitian या psychologist पर नहीं। उसे लगता है कि ये सब “सहायक” हैं, मुख्य निर्णयकर्ता नहीं। 
👉🏻यह trust gap तब तक रहेगा जब तक health education का स्तर नहीं बढ़ेगा।
👉 जब समाज सभी healthcare professionals को “equal scientific value” से देखना शुरू करेगा, तब मरीज doctor के आदेश का इंतज़ार नहीं करेगा।

🔹 Economic Psychology (आर्थिक दृष्टिकोण):
कई मरीज सोचते हैं —“डॉक्टर ने लिखा नहीं, मतलब जरूरत नहीं है। अगर करवाऊंगा तो पैसे बर्बाद होंगे।” यह खर्च को लेकर बना defensive attitude है। वह preventive या supportive physiotherapy को “optional luxury” समझता है, जबकि असल में यह “essential treatment” है।

🔹 Outcome Attribution Error (श्रेय वितरण की गलती):
अगर किसी मरीज को surgery के बाद recovery होती है, तो वह श्रेय surgeon को देता है — physiotherapist को नहीं। मरीज के मन में यह बैठा है कि “डॉक्टर ने ठीक किया, बाकी सब support system हैं।” यह mental bias physiotherapy की value को सामाजिक रूप से कम आंकता है।

🔹 Collective Conditioning of Society:
यह केवल मरीज की गलती नहीं, बल्कि पूरे medical ecosystem की देन है।
Hospitals, media, medical advertisements — सभी जगह डॉक्टर को “hero” के रूप में दिखाया गया है, जबकि physiotherapist की भूमिका पर्दे के पीछे रह जाती है। धीरे-धीरे समाज ने यह मान लिया कि “पहले डॉक्टर बोलेगा, फिर बाकी कुछ होगा।”

🔹 Impact on Recovery:
यह मानसिकता recovery process को धीमा करती है। कई बार मरीज को physiotherapy तुरंत शुरू करनी चाहिए (जैसे – fracture, immobilization के बाद, stroke के बाद, या slipped disc के case में)। लेकिन वह हफ्तों इंतज़ार करता है “doctor की prescription” का। इस बीच muscles stiffness, pain chronicity और movement loss बढ़ जाता है।
👉 यानी dependence mindset recovery को भी नुकसान पहुंचाता है।

🔹 Solution-Oriented Perspective:
1. Public Awareness Campaigns:
Physio professionals को समाज में अपने काम की scientific awareness फैलानी चाहिए। लोगों को बताना चाहिए कि physiotherapy “doctor के बाद” नहीं, बल्कि “recovery के दौरान” जरूरी intervention है।

2. Patient Education Boards:
Clinics में posters लगने चाहिए –“आप physiotherapist से सीधे परामर्श ले सकते हैं।” इससे psychological barrier टूटेगा।

3. Interdisciplinary Respect:
Doctors और physiotherapists के बीच mutual respect culture को बढ़ावा देना चाहिए। जब डॉक्टर physiotherapist को बराबरी से पेश करेगा, तो मरीज भी उसकी value समझेगा और फायदा भी होगा।

4. Media Involvement:
Health awareness programs में physiotherapy को दिखाया जाए,
ताकि जनता को यह समझ आए कि यह science है, सिर्फ exercise नहीं।

🔹 First Contact Treatment का प्रावधान अब फिजियोथेरेपी में भी लागू:
भारत में फिजियोथेरेपी अब “First Contact Treatment” (प्रथम सम्पर्क उपचार) के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुकी है😄
 इसका अर्थ है कि –
👉रोगी बिना किसी डॉक्टर (ऑर्थोपेडिक सर्जन या न्यूरोलोजिस्ट) की रेफरल पर्ची के सीधे फिजियोथेरेपिस्ट से परामर्श ले सकता है।
👉फिजियोथेरेपिस्ट स्वयं रोग का आकलन (Assessment), जाँच और उपचार प्रारम्भ कर सकते हैं।
👉यदि किसी स्थिति में रेड फ्लैग या फिजियोथेरेपी के दायरे से बाहर की समस्या मिले तो फिजियोथेरेपिस्ट रोगी को डॉक्टर / विशेषज्ञ के पास रेफर करेंगे।

आधार:
👉🏿Allied and Healthcare Professions Act, 2021 में फिजियोथेरेपी को स्वतंत्र स्वास्थ्य सेवा पेशा माना गया है।
👉🏿Indian Association of Physiotherapists (IAP) ने भी इसे प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल (Primary Care) / First Contact Practitioner के रूप में मान्यता दी है।
👉🏿यह World Confederation for Physical Therapy (WCPT) के मानकों के अनुरूप है।

दायरा (Scope):
👉🏽रोगी की जाँच और मूल्यांकन
👉🏽निदान (Diagnosis) और उपचार योजना बनाना
👉🏽फिजियोथेरेपी उपचार प्रारम्भ करना (Exercise therapy, Manual therapy, Electrotherapy आदि)
👉🏽ज़रूरत पड़ने पर विशेषज्ञ को रेफर करना
रोकथाम (Prevention), पुनर्वास (Rehabilitation) और स्वास्थ्य संवर्धन (Health Promotion)
😄 इससे मरीज को जल्दी और सीधी उपचार सुविधा मिलती है और स्वास्थ्य सेवाओं का बोझ कम होता है।

🔹 निष्कर्ष (Conclusion):
“जब doctor लिखेगा या बोलेगा तब ही physiotherapy करवाएंगे” —
यह केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि सामाजिक conditioning, डर, जानकारी की कमी, और परंपरागत authority structure का परिणाम है।
👉🏻यह mindset मरीज की recovery, autonomy और confidence — तीनों को कमजोर करता है।
👉 जब समाज यह समझेगा कि “physiotherapy doctor की अनुमति से नहीं, शरीर की जरूरत से शुरू होती है”, तभी मरीज सच में active participant बनेगा, passive follower नहीं।
👉 First Contact Treatment (FCT) का मतलब है कि मरीज बिना किसी रेफ़रल के सीधे फिजियोथेरेपिस्ट के पास जा सकता है और उसे प्राथमिक उपचार मिल सकता है। दुनिया के कई देशों में ये मॉडल पहले से लागू है, और भारत में भी फिजियोथेरेपी को First Contact Practitioner के रूप में मान्यता मिल चुकी हैं।

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